राजनीतिक सफर

1977 के संसदीय चुनावों में पहली बार कांग्रेस केंद्र की सत्ता से बेदखल हुई थी। इन चुनावों के बाद आपातकाल हटा दिया गया और आरएसएस को प्रतिबंधित करने का आदेश भी वापस ले लिया गया। 1977 में ही कुछ समय के लिए सरयू राय ने पटना में आरएसएस के बौद्धिक प्रमुख के तौर पर काम किया। कुछ समय बाद ही उन्हें तत्कालीन जनसंघ (जिसका जनता पार्टी में विलय हो चुका था) की युवा शाखा जनता युवा मोर्चा का बिहार राज्य संगठन सचिव बना दिया गया।

1979 के अंत में उनसे यह दायित्व वापस ले लिया गया। इसके बाद कुछ समय के लिए उन्होंने पटना में आरएसएस के बौद्धिक प्रमुख के तौर पर काम किया। इस दौरान उन्हें 'अफगानिस्तान पर रूसी आक्रामण' के खिलाफ बनाए गए संगठन के राज्य संयोजक की एक और जिम्मेदारी सौंपी गई। सीपीआई को छोड़कर सभी राजनीतिक दल और सामाजिक संगठन इसके सदस्य थे। एक नक्सली समूह का प्रतिनिधित्व करने वाले एक करिश्माई वामपंथी नेता स्वर्गीय सत्य नारायण सिंह इस समिति के मुख्य वास्तुकार और तत्कालीन जनता पार्टी के सदस्य डॉ. सुब्रमण्यन स्वामी इसके राष्ट्रीय संयोजक थे। इस दौरान जनता पार्टी में “दोहरी सदस्यता” के मुद्दों पर गंभीर बहस शुरू हुई। पूर्व के जनसंघ समूह और अन्य ने आरएसएस एवं जनता पार्टी की एक साथ दोहरी सदस्यता का विरोध किया। परिणाम स्वरूप जनता पार्टी का विभाजन हो गया और जनसंघ समूह के पूर्ववर्ती नेताओं ने भारतीय जनता पार्टी नामक एक नए राजनीतिक दल का गठन किया।

1980 के मध्य में जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री चंद्रशेखर ने सरयू राय से जनता पार्टी के साथ काम करने को कहा। जुलाई 1980 में उन्हें तत्कालीन जनता पार्टी का बिहार राज्य महासचिव बनाया गया। इसके अलावा उन्होंने बिहार के किसानों को संगठित करने के लिए बिहार खेतिहर मंच का गठन किया। इस मंच से प्रसिद्ध किसान नेता शरद जोशी के नेतृत्व में उन्होंने शीर्ष सहकारी संगठन बिस्कोमैन (बिहार को-ऑपरेटिव मार्केटिंग यूनियन) की ओर से किसानों को सप्लाई किए जा रहे घटिया बीज उर्वरक और कीटनाशक के मुद्दों को उठाया। उन्होंने 1974 के बाणसागर समझौते का उल्लंघन कर रहे सोन नदी के पानी के बंटवारे का मुद्दा भी उठाया।

यह समझौता बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बीच कृषि संबंधी उद्देश्यों के लिए सोन नदी के पानी के बंटवारे से संबंधित था। उन्होंने उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के क्षेत्र में सिंगरौली में स्थापित की जा रहीं लगभग 35000 मेगावाट की जल विद्युत परियोजनाओं के बिहार पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों का मुद्दा भी उठाया। उन्होंने इस प्रोजेक्ट को पर्यावरण के लिए गंभीर खतरा करार देते हुए इसका विरोध किया। उस समय यह आशंका जताई गई थी कि ये परियोजनाएं पर्यावरण के लिए आपदा के तौर पर काम करेंगी और रेनु नदी के प्रदूषण का एक प्रमुख स्रोत बन जाएंगी, जो सोन नदी की एक प्रमुख सहायक नदी है। सोन नदी बिहार के गया एवं शाहबाद जिलों के एक बड़े उपजाऊ क्षेत्र के लिए सिंचाई की आवश्यकताओं को पूरा करती है। ये परियोजनाएं रिहंद बांध को भी प्रदूषित करेंगी जिसका पानी सोन नदी में मिलने के बाद बिहार के पलामू जिले (वर्तमान झारखंड में स्थित) के लोगों के जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा।

जनता पार्टी में काम करने के दौरान उनके सैयद शहाबुद्दीन जैसे राष्ट्रीय नेताओं के साथ गंभीर राजनीतिक मतभेद हो गए जिसके बाद उन्होंने वर्ष 1984 में पार्टी के राज्य महासचिव के पद के साथ-साथ जुलाई 1984 में सक्रिय राजनीति से भी दूरी बना ली।

पार्टीगत राजनीति से उनके इस्तीफे का एक और महत्वपूर्ण कारण पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष चंद्रशेखर के साथ भारत यात्रा ट्रस्ट को लेकर उनके वैचारिक मतभेद भी थे। जनता पार्टी के बिहार महासचिव के पद से इस्तीफा देने के बाद उन्होंने 1974 के जेपी आंदोलन के आदर्शों को जनता तक पहुंचाने और उनका प्रचार करने के लिए जेपी विचार मंच का गठन किया।

इसके बाद उन्होंने एक स्वतंत्र पत्रकार के तौर पर पत्रकारिता की दुनिया में कदम रखा। यह सिलसिला वर्ष 1993 तक यूं ही चलता रहा, जब तक कि वह भारतीय जनता पार्टी में शामिल नहीं हो गए। हालांकि, इस दौरान वह किसानों के लिए काम करते रहे। उन्होंने सोन नहर क्षेत्र के किसानों की कार्रवाई समिति का नेतृत्व किया, जिसमें श्री वशिष्ठ नारायण सिंह, श्री शिवानंद तिवारी और अन्य नेता उनके सहयोगी थे। उन्होंने नालंदा जिले के किसानों के मुद्दों को आगे बढ़ाने में नीतीश कुमार का सहयोग भी किया। पटना में आयकर भवन चौराहे पर लोकनायक जयप्रकाश नारायण की आदमकद कांस्य प्रतिमा स्थापित कराने में उनकी महती भूमिका रही। वह जेपी प्रतिमा निर्माण समिति के संयोजक थे जिसमें श्री नीतीश कुमार, श्री शिवानंद तिवारी, प्रो ज़ाबीर हुसैन, अब्दुल बारी सिद्दीकी, श्री गौतम सहाय राणा और अन्य सदस्य के रूप में शामिल थे।

इस प्रतिमा का अनावरण बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने वर्ष 1991 में किया था। श्री जगदानंद सिंह के कहने पर उन्होंने द्वितीय बिहार राज्य सिंचाई आयोग के पूर्णकालिक गैर-सरकारी सदस्य और सिंचाई आयोग के उपसमिति 1 के संयोजक के रूप में काम किया और राज्य के लिए पहली जल नीति तैयार करने में अहम योगदान दिया।

राजनीति से इस्तीफा देने के 9 साल के अंतराल के बाद वह भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी के कहने पर मई 1993 में भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए।

स्वर्गीय श्री कैलाशपति मिश्रा और श्री गोविंदाचार्य ने अनुभवी पत्रकार श्री दीनानाथ मिश्रा के साथ मिलकर उन्हें भाजपा में शामिल कराने का निर्णय लिया। उन्हें भाजपा बिहार राज्य कार्यकारी समिति का सदस्य और बौद्धिक शाखा का महासचिव बनाया गया। बाद में वह पार्टी के प्रदेश प्रवक्ता और राज्य महासचिव नामित किए गए।

1998 में उन्हें पार्टी की ओर से बिहार विधान परिषद के द्विवार्षिक चुनाव के लिए नामित किया गया और वह बिहार विधान परिषद के सदस्य चुन लिए गए।

भाजपा प्रवक्ता के तौर पर सरयू राय ने 11 अक्टूबर 1994 को राजनेताओं की मिलीभगत से किए गए भ्रष्टाचार और सरकारी खजाने से की गई अवैध निकासी का पर्दाफाश किया, खास तौर पर पशुपालन विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार को उजागर किया।

उन्होंने तत्कालीन लालू प्रसाद यादव सरकार के खिलाफ 44 बिंदुओं पर आधारित चार्जशीट जमा की। इसमें कुछ विशिष्ट आरोप भी लगाए गए लेकिन राजनीतिक और प्रशासनिक क्षेत्र में कोई भी उनके तर्कों और आरोपों को मानने के लिए तैयार नहीं था, खुद उनकी अपनी पार्टी भाजपा के नेता भी उनसे सहमत नहीं थे जबकि बजटीय आवंटन के विश्लेषण और विधानमंडल द्वारा स्वीकृत पूरक मांगें इन आरोपों के पुख्ता होने के संकेत दे रहे थे। जनवरी 1996 में सामने आए चारा घोटाले ने इन आरोपों को प्रमाणित किया। यही चारा घोटाला बिहार में लालू प्रसाद यादव की सरकार के पतन का कारण बना और लालू यादव को जेल जाना पड़ा। सरयू राय उन याचिकाकर्ताओं में से एक थे जिन्होंने पटना उच्च न्यायालय में इस चारा घोटाले को लेकर एक पीआईएल दायर की थी जिसमें सुप्रीम कोर्ट की ओर से पटना हाईकोर्ट की निगरानी में सीबीआई जांच के आदेश दिए गए। सरयू राय उन लोगों में भी शामिल थे जिन्होंने बिहार के प्रसिद्ध बिटूमिन घोटाले को उजागर किया और भाजपा महासचिव के तौर पर इस संबंध में पटना हाईकोर्ट में एक पीआईएल दायर की जिस पर हाईकोर्ट ने मामले की सीबीआई जांच का आदेश दिया। उन्होंने भाजपा महासचिव और प्रदेश प्रवक्ता के तौर पर सार्वजनिक हित से जुड़े बिहार के कई मुद्दों को उठाया और सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार को उजागर किया। वर्ष 1997 में उन्हें पीरो विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में भाजपा से उम्मीदवार बनाया गया लेकिन तत्कालीन समता पार्टी (अब जदयू) के उम्मीदवार श्री शिवानंद तिवारी के समर्थन में अपना नामांकन वापस लेने को कहा गया। वर्ष 1998 में उन्हें द्विवार्षिक विधान परिषद चुनाव में भाजपा उम्मीदवार नामित किया गया जिसमें उन्होंने जीत हासिल की।

उन्होंने बिहार राज्य के विभाजन तक राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की समन्वय समिति के अध्यक्ष के रूप में भी काम किया। कैलाशपति मिश्रा के साथ उन्होंने झारखंड भाजपा में सह संगठन सचिव का दायित्व भी निभाया। वह वर्ष 2002 तक इस पद पर रहे। वर्ष 2003 से 2005 तक वह भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारी समिति के सदस्य रहे।

भारत के राजनीतिक मानचित्र पर बिहार के विभाजन और 15 नवम्बर 2000 को झारखंड के 28वें राज्य के रूप में स्थापित होने के बाद वर्ष 2005 में उन्होंने जमशेदपुर पश्चिम विधानसभा सीट से चुनाव लड़ा और जीत हासिल की।

हालांकि, वर्ष 2009 में उसी विधानसभा सीट से उन्हें मामूली अंतर से हार का सामना करना पड़ा। वर्ष 2014 में वह एक बार फिर उसी विधानसभा सीट से मैदान में उतरे और 10000 से भी अधिक वोटों से जीत हासिल की। इस बार उन्हें झारखंड की भाजपा सरकार में कैबिनेट मंत्री बनाया गया। रघुबरदास सरकार में उन्हें खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण विभाग, उपभोक्ता मामले विभाग और संसदीय कार्य विभाग की भी जिम्मेदारी सौंपी गई।

उन्होंने विभाग को डिजिटल बनाने और डिजिटल कमांड स्थापित करने के लिए कड़ी मेहनत की। पीओएस मशीन के माध्यम से खाद्य वितरण प्रणाली की एंड टू एंड कम्प्यूटरीकृत निगरानी व्यवस्था शुरू की। उन्होंने सार्वजनिक वितरण प्रणाली के साथ-साथ उपभोक्ता मामलों के विभाग में भी प्रमुख नीतिगत बदलाव के लिए कई कार्य किए। उन्होंने संसदीय कार्य विभाग में रहते हुए सत्ताधारी दल और विपक्ष के बीच सार्थक संवाद के माध्यम से विधान सभा के कामकाज को सुचारू बनाने जैसे कई उल्लेखनीय कार्य किए।